ख़ुद से अन्जान ,न कोई पहचान ... मैं दरख़्त के दरम्यां ! |
दरख़्त के दरम्यां कई शाख़े पनाह लेती है, ,जैसे समुन्द्र में लहरे जगह बना लेती है,.
अपनी दांस्ता मैं क्या बताऊ..बिखरी हुई शीशियाँ मेरी बेतरतीब बीमारी बता देती हैं
दांस्ता कुछ यूँ बयां होती हैं ..
कि था .. खुद से अन्जान , न थी कोई पहचान मैं था दरख़्त के दरम्यां,
,जो अपने आगोश में मुझको यूंही सुला लेती है,
फिर ठगा सा खड़ा मैं जब देखता हूँ खुद को ,
तो वो यादे मुझे खुद को खुद से भुला देती हैं।
कई बरस लगे उन नम आँखों की वजह ढ़ुढ़ने में,
कम्बख्त मुश्किले जिन्हें पानी बना देती है।
बस कुछ धुंधली सी यादे साथ हैं ....
कि.. रक्खा गया था ,उनके बीच मुझे जिनका कोई निशां न था ,
बेखबर उस वक़्त मैं खुद से था..सो अब मेरा कोई जहाँ न था।
अब खो चुकी पहचान मिलकियत की..अब नीलाम मेरी शक्सियत सी..
उलझा हुआ सुलझा रहा ख़ुद को मैं...कि झुलसा हुआ खुद को फुसला रहा मैं ...
बेदम सी दिखती ये तस्वीर बड़ी रंगीन हैं ,,
खुद को न पहचानने का जुर्म ये संगीन हैं।
ये जुर्म बहुत संगीन हैं।
by - ritesh kumar nischal.
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