कहाँ हो तुम , खो गए हो क्या ख़ुद में कहीं।
एक लम्बी सांस लेकर तो ठहरो ,
ढूंढ कर लाओ जहाँ हो तुम।
एक लम्बा रास्ता हैं और मोड़ कई हैं ,
जैसे दरख़्त की शाख़ों में मरोड़ कई हैं।
एक मोड़ पर ठहर कर... मन के मरोड़ साध लो ,
एक लम्बी सांस लेकर तो ठहरो ,
ढूंढ कर लाओ जहाँ हो तुम।
हम खुद का चैन ढूढ़ने चले है बेचैन होकर ही ,
जैसे खुद की ही नाव में सुराख ढूँढ़ते हो,....
चलो ना दुसरे के घाव भरते है ,वो सुराख़ भरते है।
बोलो ना कहा हो तुम ,
एक लम्बी सांस लेकर तो ठहरो ,
ढूंढ कर लाओ जहाँ हो तुम।
लगता है लोगो को हम खो गए हैं ,
सच भी है ,
क्यूंकि अब हम आईना कम देखते हैं।
अपनी खुद की तस्वीर , एक पहचान हमने बना ली है,
खुद को खो कर ही..
पाया जाता है इस सच से बेगाफ़िल है दुनिया। .
और इस सच के साथ हमने अपनी दुनिया बसा ली हैं ,
एक लम्बी सांस लेकर तो ठहरो ,
एक लम्बी सांस लेकर तो ठहरो ....
ढूंढ लाओगे खुद को ... जहाँ हो तुम।
( रितेश कुमार निश्छल )