सुनहरी सुबह-सुबह का वक्त चिड़ियों का चहचहाना ,गिलहरियों-तितलियों के छोटे-छोटे झुण्ड,सामने अपना चमचमाता हुआ दो मंजिला मकान और अपने खूबसूरत से छोटे लाॅन में चाय की चुस्कियों के साथ हाथ में ताजा-तरीन खबरों वाला अख़बार,सामने मिसेज पौधो में पानी देती हुई और बच्चें तितलियों और गिलहरियों के आगे-पीछे दौड़ते हुए..के अचानक मकान की दीवारें हिलने लगी और देखते ही देखते पूरा मकान ढह गया और इतने में ही पसीने से सराबोर मनोहर साहब की आँख खुल गयी। अपने हसबैण्ड को उठाते हुए मिसेज ने आज फिर अपने माथे पर अपनी हथेली दे मारी-‘‘आज फिर वही सपना देखा न?’’
मनोहर साहब पसीना पोंछते हुए-‘‘क्या करूं?..दिमाग में जो घुडदौड़ चल रही है वो बेसुध होने पर तो मंजिल तक पहुंच ही जाती है। ऊपर वाले की दया से हम अच्छा ही खा-पी रहे हैं और बच्चों की पढ़ाई किसी तरह मैनेज हो जाती है। लेकिन अपने खुद के मकान या फिर ज़मीन के एक टुकड़े के लिए इस हद तक परेशान होना पड़ रहा है कि......खैर अब आॅफिस का टाइम हो रहा है।’’
वाकई ये वाक्या चैंकाने वाला तो था नहीं लेकिन एक आम आदमी से जुड़ा सबसे बड़ा सच तो जरूर है। जहां एक तरफ शहरों में अस्त-व्यस्त और पस्त भागती दौड़ती ज़िन्दगी नज़र आती है। वहीं एक तरफ बढ़ती पनपती इमारतें जो ज़मीनी हकीकत को मुंह चिढ़ाते हुए बढ़ती जा रही हैं। कद में भी और आम आदमी की जेब में दम तोड़ते दामों में भी। ये एक ज़िन्दगी और इस एक ही ज़िन्दगी में कई ज़िम्मेदारियां, एक चूक और मानो जिन्दगी नुमा शर्ट के पहले बटन का गलत खांचा चुन लिया हो।
यहां मेरा मकसद किसी अनदेखे से डर के एहसास से नहीं बल्कि उस हकीकत के स्पर्श से है जो हम और आप महसूस कर सकते हैं। हमारे आस-पास की चकाचैंध हमारी आंखों को तो सुकून दे सकती है लेकिन दिल और दिमाग में एक खुरचन सी दे जाती है और दिल से एक आवाज आती है कि काश इन जैसा एक आशियाना हमारा भी होता। वो बात अलग है कि इस जहां में कुछ ठान लेने वालों के लिए कहीं कोई कोना तो सुनिश्चित होता ही है। लेकिन अपने उस सपनों के छोटे से घर तक पहुचंना किसी सांप-सीढ़ी के खेेल से कम नहीं।
जहां सीढ़ी की चढ़ाईनुमा नौकरी में बेतरतीब मेहनत है वहीं सांप के दंश सी बढ़ती महंगाई और उसके सपनों का घर सड़कों पर लगे बड़े-बड़े होर्डिग्ंस में और अखबारों के फ्रन्ट पेज पर आसान किस्तो पर नज़र आता है वहीं दूसरे दिन की खबरो में स्टाम्प ड्यूटी, सर्किल रेट और मंहगी हुई रजिस्ट्री उसके सपनों के झूमर पर पत्थर मारते हैं।
फिर किसी एक आम आदमी के एक हाथ में महीने भर की तनख्वाह और दूसरे में उन अखबारों की खबरों को देखता है फिर नम आखों से मुस्कुराता हुआ खुद को कहता - लो बेटा बाबा जी का ठुल्लू।
हर हालात में मुस्कुराना ये हमारी आज की बडी उपलब्धियों में से एक है। लेकिन जिन्दगी के इस सर्कस में हर आदमी तो जोकर नहीं बन सकता फिर भी ये गर्व करने वाली बात है कि जोकर जैसी शख्सियत को खुद में रखना यानी समस्या को हल की तरफ ले जाना है।
अभी हाल ही के दिनों की बात है जब मैं अपने अंकल लोगों के साथ लाॅग ड्राईव पर निकला था। अहमद चाचा ड्राइव कर रहे थे और राजू चाचा मेरे साथ पीछे की सीट पर थे। दोनो दोस्तों में हंसी मजाक का दौर बदस्तूर जारी था। तभी हमारी बायीं ओर से एक शमशान गुजर रहा था। सभी ने कुछ लकड़ी के ढेरों की ओर जलती हुई आग को सर झुकाकर नमन किया। कुछ दूर आगे निकल जाने पर राजू चाचा ने कहा- अमा मियां अहमद कुछ सालों बाद हम भी इसी तरह लकड़ियों के ढेर पर रूकसत हो जायेगें। लेकिन मियां ये बताओ आपके यहां तो दफनाने का रिवाज है जिस तरह ज़मीन की किल्लत इस वक्त है तो आने वाले वक्त में तो.... इतना कह कर वो रूक गए। मुद्दा तो बहुत पेचिदा था। लेकिन राजू चाचा की इस बात पर अहमद चाचा ने चुटकी लेते हुए कहा-''तब तक हो सकता है हमारी सरकार अपने लोगो के लिए बेसमेन्टनुमा फ्लैट कल्चर लागू कर दे।''
राजू चाचा-(मतलब)। ''अमां मतलब ये जिस तरह अभी जमीने कम पड़ रही हैं मकानों के लिए.. तो शहरो में बडी-बडी बिल्डिंगे खडी हो गई है..हो सकता है हमे भी गहरी जमीनो में फ्लोर दे दिए जाए। उनकी इस बेतुकी लेकिन माहौल को हल्का करने वाली बात पर सभी हंस पडे।
मैं भी मुस्कुराता हुआ एक सोच में डूब गया और कार की खिड़की से बाहर की तरफ देखते हुए मैने देखा कि एक छोटी चिड़िया अपनी चोंच में सूखे घास का गुच्छा लिए पेड़ पर बने अपने घोसले की तरफ जा रही थी। मेरा वो सफर एक मुस्कुराहट के साथ उस दिन खत्म हुआ लेकिन एक नया सफर इन आखिरी कुछ शब्दों के साथ शुरू हुआ......-
एक आशियां मेरा भी होगा खूबसूरत इस जहां में।
बस इन पंछियों के घोंसले मेरी उम्मीद कायम रखते है।।
Pictures By; Google
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