Saturday, July 13, 2013

मैं राम....मैं रावण

                                                          

Shri Ram

क्या हमारे किसी अच्छे या बुरे परिवार में जन्म लेने से इस बात का पक्ष मजबूत होता हैं की हमारा भविष्य ,चरित्र और कर्म बेहतर होंगे या नही ..आप भी इस बात से ज़रुर इत्तेफ़ाक रक्खेंगे कि हम कब- कहाँ और किस तरह अपने बेहतर इरादों से ऊचाइंयों की मंजिल तक पहुँचते हैं और कब वो एक स्टेप...वो एक स्टेप हमे हमारी दुनिया से मीलो दूर फेंक देता हैं जहाँ नाम- शोहरत और हमारी अच्छाई धूमिल हो जाती हैं और रह जाता हैं केवल बदनाम ..'नाम'.

Rawan
जो नाम कभी आसमान में झिलमिलाते तारो के बीच ध्रुव तारा था वो स्वाति नक्षत्र की वो बूंद बन गया जो सीप में पड़ कर मोती तो नहीं बना और ही उन शुभ केले के पत्तो में छिपकर कपूर बन पाया उसने चुना लालच -अहम् - घमंड और 'मैं' का वर्चस्व थामे उस सर्प के मुख को जहाँ वो विष बन गया ..जिसने उसके ही जीवन में घुलकर उसके भविष्य का विनाश कर दिया।

ये बात कितनी सही है इसे टटोलने के लिये चलिए आज थोड़ा सा आध्यात्मिक हो जाते है ..मैं बात करु अगर बीते युगों की जहाँ मर्यादा पुरुषोतम श्री राम हो या प्रकाण्ड पंडित रावण या फिर मनमोहक मुस्कान लिए श्री कृष्ण या मैं के अहम् से परिपूर्ण कंस ..ये सभी अपने -अपने युगों में अपने कर्मो और लक्षणो से जाने जाते है। अब मैं इतना सक्षम नहीं की इस महान विषय पर समीक्षा कर सकूं लेकिन हाँ दिमाग में गुलाटी मारते विचारो को आपसे जरुर बाटूंगा। .........

इस कलियुग में राम बनना आसान हैं या रावण बनना..तो दिमाग में चल रही इस गुत्थी का दूसरा प्रारूप ये है की सही करना सही हैं या गलत करना आसान तो इस वक़्त हम जिस युग में है वहाँ कुछ का मानना "कुछ करना" सबसे बेहतर माना जाता है। अगर आज के कलियुग के भक्त या भक्षक की बात करूं तो ऐसे कई बड़े नाम हैं जिन्होंने खूब मेहनत (तप) कर खुद को ऊंचाइयों और शोहरत के मुकाम पर पहुँचाया।फिर अचानक उनका एक फैसला वो एक गलत कदम उनकी आने वाली पूरी जिंदगी पर भारी पड़ गया।..अब चाहे वो खिलाड़ी -अन्तराष्ट्रीय धावक ऑस्कर पिस्टोरियस हो जिहोने विकलांग होते हुए भी खुद को एक तेज़ धावक सिद्ध किया या फिर क्रिकेट खिलाडी एस.श्रीसंत हो जिनकी उड़ान को पूरा आकाश बाकी था या फिर अपने करियर के उतार-चढ़ाव भरे जीवन के वर्तमान समय के सबसे बेहतरीन समय में जीवन जी रहे संजय दत्त हो।

इनको इनकी कड़ी मेहनत -कठिन तप मिला वरदान कहीं कहीं इनके अन्दर बसे श्री राम ने इन्हें दिया।जाने-अनजाने लेकिन थोड़ी सी खुद से लपरवाही ,थोड़ा अभिमान-थोड़ा लालच और अहम् को बढ़ाते हुए 'मैं' ने रावण का वर्चस्व बनाये रक्खा। .. एक अहम् सवाल ? - क्या इस युग का रावण बीते युग के श्री राम से ज्यादा शक्तिशाली हैं या फिर उसकी तैयारी पहले से ज्यादा मजबूत है। ..या एक सच - रावण को हमने शक्ति प्रदान की और उसने खुद को हमारे अंदर जिन्दा रखने के लिए- हमारे आस-पास के हालात का भरपूर फ़ायदा उठाया और अपने जैसे कई रावणो की उत्पत्ति कर डाली ..इसका सबसे बड़ा उदाहरण

19 वीं-20 वीं शताब्दी के महानयाक-विलेन अडोल्फ़ हिटलर रहे ..एक अन्तराष्ट्रीय चैनल ने जब इनकी विस्तृत बायोग्राफी दिखाई तो इनके जीवन के कुछ अंश जानकर काफी से ज्य़ादा हैरानी हुई।
Adolf Hitlar

उस चैनल के शोध के अनुसार बचपन में हिटलर पादरी बनना चाहते थे और बाद में उनके अंदर एक बेहतर चित्रकार ने भी जन्म लिया लेकिन उनके पिता की जिद और कड़े व्यवहार बुरे बर्ताव ने उनके अंदर पनप रही बेहतरी को ख़त्म कर दिया।इनकी माता जी की बीमारी ठीक ना हो पाई और उनका देहांत हो गया,उनका इलाज़ एक यहूदी डॉक्टर कर रहे थे इसके अलावा इनकी चित्रकारी को नकारने वाले भी एक यहूदी टीचर थे।हिटलर के उस छोटी उम्र के मस्तिष्क पर इन दोनों घटनाओं का काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा इन दो घटनाओं ने इनके अंदर यहूदियों प्रति घ्रणा का जबरदस्त सैलाब उमड़ा दिया।लगभग इन सभी कारणों ने

जन्म दिया 19वीं-20वीं शताब्दी के विद्वान रावण को .. जिन्हें परिस्तिथियों ने राम से रावण बना दिया।जो व्यक्ति एक विनर्म पादरी बन लोगो पर ज्ञान की बारिश कर सकता था बेहतरीन चित्रकार बन कई जिंदगियो में रंग भर सकता था वह दुसरे विश्वयुद्ध का प्रमुख संचालक बना।..ख़ैर इस शोध के बाद बाकि ये मेरे अपने विचार जो मैंने आपसे कहे, हालत अच्छे से अच्छे इन्सान की गाड़ी पटरी से उतारने में सक्षम है और कई विरले ऐसे भी होते हैं जो हालत को दरकिनार कर अपनी जिंदगी की गाड़ी दिशा और दशा दोनों बेहतर अपने दम पर करते हैं, आप और मैं हालात से हार सकते हैं और उसे हरा भी सकते हैं। उस ईश्वर का कोई रूप नही बस हमीं ने उन्हें अलग -अलग नाम देकर खुद में बसा रक्खा हैं।बस जरुरत है खुद के अंदर बसे उस ईश्वर पर विश्वास करने की ऐसा हमसे हमारे बड़े हमेशा कहते हैं क्यूंकि उनका तजुर्बा हमारी जिंदगी की इमारत को मजबूती देता है।सो मुस्कुराते हुए लड़ाई जारी रखिये। 

                                                 

                                                  एक प्रयास - रितेश कुमार "निश्छल"

       




मैं हूं एक फूलवाली


फूलवाली 
                                                मैं हूं एक फूलवाली, और फूलों का कारोबार है मेरा,
         ये टोकरी है दुकान मेरी और हर फुटपाथ पर मेरा डेरा।
 
 
काम तो मेरा छोटा है, पर अरमान छोटे नहीं,
                         इन फूलों की तरह बिखरी हूं, बस मैं यहीं कहीं।
  हर कोई मुझे हर वक्त छोटा आंकता  रहता है,
                          पर मेरे सपनो के झरोखे से कोई झांकता रहता है ।
 
 
               हम जिन्दगी में अपनी बहुत कुछ में सबकुछ करना चाहते हैं,
            पर शुरूआत कुछ से होती, बस यही भूल जाते हैं।
              ये फूल बेच बेच कर जो कुछ कर पाती हूं,
            बस इस कुछ से ही, परिवार के दिल में बस पाती  हूं।
 

            
 जरूरत और अरमानों में एक जंग सी छिड़ी है,
                    पर अरमानों के आगे, जरूरत की दीवार जो खड़ी है।
जरूरत की ये समस्या सचमुच काफी बड़ी है,
                  अब अरमानों की पोटली न जाने कहां पड़ी है।।
           
मेरे दिल के दरवाज़े पर उम्मीद की खट -खट है,
                    पर इस जिंदगी में तो काफी से ज्यादा खट -पट है।
           एक विश्वास है  सहारा मेरा ,मैं कुछ अलग कर पाऊँगी ,
                          रोने-धोने में क्या रक्खा है ,हर कोशिश पर मैं मुस्कुराऊँगी।। 
 

                 मैं हूं एक फूलवाली, और फूलों का कारोबार है मेरा,
             ये टोकरी है दुकान मेरी और हर फुटपाथ पर मेरा डेरा।
 
 
                                                                                 
 
                                                                                                     कोशिश - रितेश निश्छल