Monday, December 1, 2014

भगवान का दर्द

                                                                भगवान का दर्द

‘‘वो ईश्वर वो खुदा-वो कोई एक शक्ति..। वो जिसके दम से हममे दम है..हममे सांस है़..हममे आवाज़ है उसने इस दुनिया को बनाया हर ज़र्रे में वो समाया है।’’
और आज पूरे विश्वास, आस्था और श्रृद्धा के साथ हम ऐसा मानते भी हैं और हमें उस ऊपरवाले से बेहद प्यार भी है।
‘‘प्यार’’- किसी इंसान से हो तो मोहब्बत या दिलीतौर पर बेहद नज़दीकी रिश्ता और यही प्यार अगर भगवान से हो तो उनमें आस्था और विश्वास के साथ उनसे जुड़ा रहता है, सुरक्षा का एहसास, दिली सुकून और वो सब अच्छा करेगें बेहतर करेंगे ऐसी उनसे उम्मीद’’।
अब प्यार के इस दो पैरामीटर में बेहद ही पेचिदा सा एक नुक्स एक अलग नज़रिये से सामने नज़र आता है, जो मैं आपसे बांटना चाहूंगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि हम मिलकर इसके बेहतर नतीजे पर पहुंचेगें।
जब कोई एक इंसान किसी दूसरे इंसान से जरूरत से ज्यादा प्यार करता है तब एक और एहसास पनपता है जिसे हम फिक्र कहते हैं और गड़बड़ तब होती है जब उस फिक्र का कद इतना बढ़ जाए कि उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते ये फिक्र दख़़ल में तब्दील हो जाए, तब वो प्यार सांस लेने में तकलीफ करने लगता है और फिर एक बेहद कोमल और बेहतर रिश्ते में ख़लल या कहें दरार पड़ जाती है और अगर सही समय पर इस दरार की मरम्मत दिमाग के मिस्त्री से न कराया जाए तो हालात बद् से बद्तर हो सकते हैं।
बस उस अज़ीमो-नज़ीम ऊपरवाले से प्यार के मामले में मसला और मकसद बदल जाता है। अब चूंकि वो तो ईश्वर है वो सर्वशक्तिमान है। वो सब कुछ बदलने का माद्दा रखते हैं, तो उनके साथ फिक्र का इमोशन नहीं जुड़ सकता।
लेकिन जब मोहब्बत करने वाले इंसान में फिक्र की दखलअंदाज़ी शरीक हुई तो फिक्र करने वाला इंसान अपनी जगह हमेशा की तरह सही था क्योंकि उस पर प्यार का ख़ुमार  इस कदर था कि वो सामने वाले की घुटन को भांप तक नहीं पाया।
ऐसा ही कुछ ईश्वर के मामले में हमसे हो जाता है। हमारे ईश्वरीय प्यार में आस्था का अंधकार इतना घना होता है कि एक अंजाना सा अंधविश्वास एक ऐसी दीवार बनाता है जो दिल और दिमाग के बीच इतना फासला ले आता है कि हममे सही और गलत का फासला बढ़ जाता है। शायद ये इसलिए भी हुआ क्योंकि हम ईश्वर की तरफ से बेफिक्र थे। जो जायज़़ है लेकिन आपको पता है इस बेफ़िक्री का परिणाम क्या हुआ।
अंजाने में ही हम भगवान को दर्द दे बैठे।
आम तौर पर हममें से हर कोई उस ऊपरवाले को किसी न किसी रूप में स्वरूप में अपने आस-पास रखना चाहता है मसलन अच्छे विचारों के लिए,अपनी सुरक्षा या अपनी तरक्की के लिए हर व्यक्ति में भगवान को अपनाने में अपने अलग मायने और ज़रूरतें हैं। इसलिए हमारे ईश्वर-गले के हार, कंगन, अंगूठी से निकलकर हमारी गाड़ियों की की-चेन्स, प्रिन्टेड कपड़े और दूसरे गेजेट्स के रूप में हमारे समक्ष हैं जिन्हें बनाने वाले और अपनाने वाले हम हैं, हमने उनकी मूरत को अपने लिए अपने ढंग से पिरो लिया है।
अब हम हालात की संजीदगी को अगर समझे तो सर्वशक्तिमान, शिव के अंश अवतार-जिन्हें अजर-अमर रहकर इस कलियुग के अंत तक रहने और हम पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखने का वरदान प्राप्त है।
यही कारण है ये सभी के प्रिय हैं। लेकिन आजकल हमने इन्हें अलग स्वरूप में अपनाया हुआ है। ये हमारी नई-पुरानी फोर-व्हीलर में ‘‘सेन्टर रिव्यू मिरर’’ के नीचे हवा में लटके हुए दिख जायेगे।
वो ठोस प्लास्टिक के सिन्दूरी रंग या (नारंगी रंग) के ,हाथ में गदा लिए हुए ,हवा में झूलते हुए ,मुस्कुराते हुए हमें हर दर्द मुश्किलों से बचाने के लिए वो सदा अपना आशीर्वाद हमारे सर पर रखते है।
अब जरा सोचिए एक अंजानी सी आस्था की हल्की सी अंधविश्वासी परत महसूस की क्या आपने?
चलिए हम फिर से आगे के शब्द आराम-आराम से पढ़ते हैं, एक ठोस प्लास्टिक को हनुमान जी का स्वरूप दिया गया उनको सजाया गया ,हाथ में गदा उनके चेहरे पर मुस्कुराहट-फिर उनकी पीठ पर एक लोहे की कील से छेद किया गया फिर उसमें एक लटकन भी लगा दी गई अब जब तक गाड़ी चलेगी तब तक वो अनायास ही इधर उधर टकराते रहेंगे।
यहां अहम मुद्दा ये है कि हमारे यहां हर धर्म में...जहां ईश्वर के होने का संकेत होता है उस जगह को हम पवित्र मानते हैं उसे साफ-सुथरा और महफूज़ रखते है और अगर किसी तरह का ईश्वरीय चिन्ह हमारे साथ या हमारे पास होता है तो हम उसे बेहद सहेज कर रखते हैं वो आंखों के सामने हो लेकिन सुरक्षित हो क्यों ये सही है न फिलहाल इस बात को इस तरह से इस नज़रिये से समझने के बाद-क्या हमें विचार करना चाहिए या नहीं ? क्या हमें महसूस करना चाहिए (भगवान का दर्द)?
ये हमारे लिए तब और भी जरूरी है जब हम उनमें सच्ची और वास्तविक आस्था रखते हो।

                                                             
                                                                                                     एक प्रायस -  रितेश कुमार निश्छल