Sunday, September 27, 2015

विश्वास पर विश्वास हैं ना...?

आज से कुछ दिन पहले जब मैं थोड़ा असमंजस में था। तब अचानक एक बेहतरीन किताब कि कुछ पंक्तियाँ दिमाग में सरपट दौड़ने लगी की "आप जितने भी बुरे दौर से गुज़र रहे हो कुछ भी आपके मुताबिक न घट रहा हो,ऐसा लग रहा हो कि परिस्थितियां हाथ से फिसलती जा रही हैं।   इन सब हालातो के बावजूद एक चीज़ आपके पक्ष में हमेशा रहती है कि  'आप जिन्दा है अपने हाथ से फिसलते हुए उन हालातो को थामने  के लिए ,आपका वजूद है बुरे से बुरे हालातो में भी मुस्कुराने के लिए और हमारे जिस्म में हमारी रूह का होना इस बात क सबूत है के एक बार फिर खुद पर विश्वास करके हम कैसे भी हालात बदल सकते है।" दिमाग की नसों में याद बनकर ये मजबूत सोच चल रही थी।  

अचानक मैं इन सब बातो से बाहर आया और खुद से कहा कि  हमारी जिंदगी का हमारे साथ होना एक बेहतर बात है लेकिन क्या विश्वास के बिना जिंदगी का महत्व है? क्या विश्वास ऐसा संदूक है जिसमे हर मुश्किलो से निकलने के रास्ते बंद है? 
तो बस फिर बिना समय गवाएं मैंने ये फैसला लिया की अपनी इस स्थिति को और इनसे जुड़े सवालो को आपके साथ साझा किया जाये और आपके साथ मिलकर  कोशिश की जाये हमारे अंदर छिपे विश्वास को  समझने की ।

तो चलिए शुरू करते है तब से जब से हममे सोच का बीज़ अंकुरित हुआ  । कुछ याद है धुंधला सा.. ...जब  हम गिर-गिर कर चलने की कोशिश कर रहे थे।  तब माँ ने अपनी दोनों हाथो की एक-एक उंगलियां हमारे दोनों छोटे-छोटे हाथो में थमा  दी और उसके सहारे हम कुछ   दूर चल पाये फिर माँ ने  हमें छोड़ दिया और पूरी उम्मीद से हमें अपनी ओऱ इशारा करके बुलाने लगी।  याद हैं जब पापा के साथ सड़क पर साइकिल सीख रहे थे और  पापा पीछे से साइकिल का केरियल थामे हुए थे  और हम बार-बार पीछे मुड़कर देख रहे थे तब  उन्होंने हमारे      कंधे पर हाथ रखकर कहा 'आगे देखो  मैं हूँ न'।  याद है आपको  जब हम पहली बार किसी कम्पटीशन में हिस्सा ले रहे थे और आप अपनी बारी का इंतज़ार  करते हुए अपनी हथेलियों पर जो  पसीना आ  रहा था उसे पोछते हुए खुद से कह रहे थे के मैं कर सकती हूँ या मैं कर लूंगा।  जिन हिस्सों का यहां जिक्र हुआ है वो हमारी जिंदगी की शुरूआती दौर की यादे हैं। अपने माता - पिता  के इस विश्वास के रिफ्लेक्शन से हम प्रेरित हुए और तब हममे अपने प्रति विश्वास जाग रहा था और जब किसी कम्पटीशन में अपने हथेलिओं के पसीने को पोछते हुए खुद को समझा रहे थे तब हम अपने विश्वास को बढ़ावा देकर अपनी जीत सुनिश्चित कर रहे थे। तो जाते हुए समय और बढ़ती हुई उम्र के साथ विश्वास का प्रकाश अंधकार में क्यों खोने लगता है। 
अगर हम इस बात के तर्क को स्वामी विवेकानंद जी के शब्दो में समझे तो वे कहते है कि "यदि स्वयं में विश्वास करना और  अधिक विस्तार से पढ़ाया और अभ्यास कराया गया होता,तो मुझे यकीन है कि  बुराइयों और दुःख एक बहुत बड़ा हिस्सा गायब हो गया होता।" ये तथ्य जितना भव्य है  ये उतना ही अंदरुनी सत्य है। वैसे काफी  बार विश्वास का एक पक्ष इस तरह से भी सामने आया है कि  -विश्वास की नींव अविश्वास से शुरू होती है  और कई लोगो की भीड़  में जो  एक व्यक्ति निराधार बात करता है यानि दूसरो की नजरो में जो अविश्वसनीय होता है और जब वही अविश्वास अपने सकारात्मक परिणाम की विजय पताका फहराता है तो विश्वास जन्म लेता है और हमारे अंदर का विश्वास अगर हमें दोबारा पाना हो तो ज्यादा कुछ नहीं इस बार अपनी दोनों हाथो की एक-एक उंगलियाँ अपने माँ के हाथो में थमा देना तब उनकी आँखों में जो चमक होगी वो हमारा खोया हुआ  विश्वास है और अब अगर विश्वास को मजबूती देनी हो तो फिर एक बार हमें अपने पिता के उन ऊँचे कंधो को देख लेना चाहिए जो हमारी वजह से हमेशा हिमालय की तरह अडिग है। बस हो गया जादू जो किसी भी चमत्कार पर भारी  पड़ने वाला हैं।   
अब बात करे अगर सांसारिक यानि बाहरी जादू या चमत्कार की तो वैसा कुछ होता ही नहीं हैं ।  हमारे खुद 
पर किये गए विश्वास के बाद हमारे द्वारा किए गए प्रयासों का परिणाम ही दूसरो को जादू या चमत्कार लग सकते हैं।  विश्वास को हमेशा  एक नयी खोज का ,एक नए मकसद का आधार चाहिए होता हैं। क्यूंकि जिंदगी में अगर मकसद नहीं तो विश्वास के टिकने का आधार भी नहीं।तो हम अपने अंदर भी विश्वास को महसूस कर सकते है उसे एक मजबूत जगह दे सकते है। 
उम्मीद है हमें विश्वास को लेकर खुद में कुछ बेहतर महसूस हुआ होगा। फ़िलहाल जाते-जाते कुछ शब्द हम सबके लिए - "हमारी जिंदगी से जुड़े बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब  हमारे पास नहीं है और वो जवाब इसलिए भी हमारे पास नहीं हैं क्यूंकि हम उन्हें खोजते ही नहीं। "
  

















     

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